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मेरी ICU यात्रा।

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मई का महीना शुरू होते ही मुझे हरारत पकड़ लेती है. ठीक एक साल हो गया, पिछले साल मई के महीने में किन्ही विपरीत परिस्थितियों के चलते मुझे चिकित्सक से मिलना पड़ा। दुनिया कहती है कि “रोज एक सेब खाओ और डाक्टर को दूर भगाओ” मुझे हमेशा लगा यह तो अंग्रेज़ी में कहा गया है तो अंग्रेज़ों के लिए ही होगा,  हमारा क्या लेना देना, अंग्रेज़ सेब खाएं, न खाएं, लेकिन इस सफर के बाद पता चला की हम काले हैं तो क्या हुआ हमें भी प्रचुर मात्रा में सेवन करना चाहिए खासकर अगर आप का रिश्ता हिमाचल से हो। बहरहाल मैं बीवी के साथ टहलता हुआ चिकित्सक तक पंहुचा और उसने तुरंत आला लगा कर लंबी लंबी सांस दिलवाइ। पलक झपकते ही दो चार सफेद धारी मेरे अंग अंग पर आधुनिक यंत्र लगा कर जांचने लगे। और अचानक चिकित्सक ने घोषणा की कि मुझे तुरंत ICU में भरती करना पड़ेगा। बीवी के तो हाथ पांव फूल गए की मैंने तो घर पर राजमा भिगो रखे हैं, वहीं मैं भी मिन्नते करने लगा की मुझे आज न जमा किया जाए, मैंने दाढ़ी नहीं बनाइ है। लेकिन क्रूर चिकित्सक उतावला था मुझे ICU बिस्तर पर पटकने के लिए। मेरे मिमियाने के बाद भी वह मानने को तैयार ही नही था। मैंने और बीवी

Reviving the Legacy: Imtiaz Ali's "Chamkila" - A Journey Through Music and Memories

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As a child growing up in the border town of Paonta Sahib in Himachal Pradesh, my daily commute to school was not just a journey; it was an immersion into a world of diverse cultures and experiences. Fond memories of those days flood back as I reminisce about the black ambassador that shuttled us to and from school, the absence of which often led us to hitch rides with truck drivers to our destination. It was during these rides that I was introduced to the pulsating beats of Punjabi music, with Amar Singh Chamkila's songs being a constant companion.   Chamkila's music, though not fully understood in its lyrical depth, resonated with me and many others, transcending geographical boundaries and cultural divides. Growing up amidst the insurgency in Punjab during the 1980s, Chamkila's songs provided solace amid the chaos, even as news of his assassination shook us to the core.   Decades later, the memory of Chamkila was reignited when my close friend, Rohit Jugraj, embarked on a
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"अर्घ्य" का सफर

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किसी किताब को विचार से पन्नों पर कैसे लाया जाए इस अनुभव से मैं कोसों दूर रहा. मात्र लेख या किसी कहानी को लिख डालने में, पटकथा को रचने में और किसी किताब को लिखने में काफी फर्क है. और अगर वो किताब किसी का जीवन वृतांत हो तो कार्य विचार से शोध, शोध से संग्रह, संग्रह से संकलन और फिर शब्दों का एक विशाल पर्वत जिसे लेखक रोज़ सुबह से शाम डूब कर अपने छैनी हतौड़े से एक आकृति का रूप देता है. ये आकृति सिर्फ उसे दिख रही होती है, लेकिन धीरे धीरे, अपनी कला से उसे हर ओर से आकार देकर, पॉलिश करते रहना जब तक वो उस इंसान की आंखें न पढ़ ले जिसका जीवन वृतांत मात्र विचार से शुरू हुआ था . लेकिन मूर्तिकार और कथाकार को शायद इस डर में तपते रहना पड़ता है की जो मूरत उसने अपने दिमाग में बनाई है ज़रूरी नहीं की उसकी दिन रात की मेहनत , सालों की तपस्या, अथाह परिश्रम से बनी मूरत ठीक वैसी होगी जैसी पाठक के मस्तिष्क में घूम रही हो. ये अनुभव मुझे तब हुआ जब मेरे पिता ने अपने पिता पर किताब लिखने की ठानी। मेरे लिए ये सटीक अवसर था, अपने पिता को नज़दीक से जानने का. उन्होंने इस कार्य के लिए ऐसे लेखक को चुना जो कभी मेरे दादाजी
(क्लीन पांवटा ग्रीन पांवटा, CPGP, पांवटा साहिब नामक हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से शहर में नागरिकों द्वारा चलायी गयी एक मुहीम है. जहाँ उत्तराखंड के कुल्हाल के बाज़ार से ब्रहस्पतिवार को हिमाचल आने वाली पॉलिथीन को सीमा पर ही रोकने की कोशिश होती है. पांवटा के हिमाचल और कुल्हाल के उत्तराखंड के बीच यमुना नदी पर एक पुल है और वही पुल हिमाचल और उत्तराखंड को जोड़ता है ) पुल पुराण गुरुवार का महत्व हम सभी जानते हैं. गुरुवार का सम्बन्ध एक ग्रह से है, जिसे अंग्रेजी में ज्यूपिटर कहते हैं, और सभी जानते हैं की साबू ज्यूपिटर का वासी था, और चाचा चौधरी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज़ है. गुरुवार का महत्व कुल्हाल और पांवटा के बीच भी जोरदार है. मसला तो सदियों से चला आ रहा है लेकिन पिछले एक साल से जो मंज़र पुल पर देखने को मिलता है उसे देख के लगता है जैसे कुल्हाल- पॉलिथीन नाम की अपनी निकृष्ट बेटी - पांवटा जैसे बांके, सुन्दर, यथेष्ट, दयालु, रूपवान लड़के से जबरदस्ती ब्याहने पर तुला है. खैर, ये लोगौं के थैले से एक साल से इतनी पॉलिथीन निकल गयी की आस पास के गाँव तक सड़क पहुँच गयी. जी हाँ कुल्हाल से प

होली मेला भ्रमण

लगभग 20 साल बाद अपने शहर के होली मेले में जाने का मौका मिला. अब मैं मेट्रो शहरी हो चूका था, इसलिए कैमरा कंधे पर लटकाए, टोपी सर पर लहराए, काला चश्मा आँखों पे सजाये, मैं मेले का हर लुत्फ़ उठा लेना चाहता था. जैसे अमरीका लन्दन से देसी लोग आके गाये भैंस की फोटो खींच के महान बन जाते हैं वैसे ही मैं भी जलेबी और रसगुल्ले की फोटो खींच खींच के उस फेहरिस्त का हिस्सा बनने के लिए मचल रहा था. गया तो था फोटो लेने लेकिन माहौल में डूब गया और भूल गया की किस काम से निकला था. सहारनपुर से ख़ास पनवाड़ी आया था, जिसकी खासियत थी की वो ग़ज़ल गाके आपके मुंह में पान ठूंस देता है, मैंने इत्मीनान से पूरी ग़ज़ल सुनी और उसने पान गले तक हाथ डाल कर खिलाया. आस पास के गाँव वाले उससे बहुत प्रभावित नहीं दिखे, उसकी ग़ज़ल को बीच में ही टोक के उससे और सुपारी डालने की डिमांड करते दिखे, ग़ज़ल से ज्यादा उनका पान में इंटरेस्ट था. आर्टिस्ट को ठेस पहुँची पर उसने कत्तई ज़ाहिर नहीं किया. तभी किसी ने पान खा के मेरे कैमरे पर पीक मार दी. जब तक मैं समझ पाता वो इंसान भीड़ में गायब हो गया और काफी देर बाद मुझे मौत का कूआं में मोटर स